मोकामा की धरती पर एक बार फिर से सियासी जंग छिड़ चुकी है, लेकिन इस बार मुकाबला सिर्फ वोटों का नहीं, बल्कि ‘भावनाओं’ का भी है। बिहार की राजनीति में मोकामा हमेशा से एक अलग किस्म की पहचान रखता आया है, और इस पहचान के केंद्र में रहा है नाम—अनंत सिंह। दुलारचंद यादव हत्या मामले में जेल में बंद होने के बावजूद अनंत सिंह का रुतबा मोकामा की गलियों में आज भी महसूस किया जा सकता है। और अब, इसी रुतबे को भुनाने की कोशिश करते दिख रहे हैं जनता दल यूनाइटेड के नेता ललन सिंह। मोकामा पहुंचते ही उन्होंने ऐसा बयान दे डाला जिसने सियासी हलचल मचा दी—“हर एक व्यक्ति अनंत सिंह है, अनंतमय कर दीजिए पूरे मोकामा को।” यह एक भावनात्मक नारा था या एक सोची-समझी सियासी चाल—यही अब सबसे बड़ा सवाल बन गया है।
‘हर कोई अनंत’ – ललन का इमोशनल कार्ड या सियासी जाल?
ललन सिंह ने मोकामा की जमीन पर कदम रखते ही जो संदेश दिया, उसने सीधे जनता के दिल पर दस्तक दी। उन्होंने भीड़ से कहा, “आज अनंत सिंह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मा हर मोकामावासी में बसती है। आप सब अनंत बनकर चुनाव लड़िए।” यह बयान केवल एक राजनीतिक रैली का हिस्सा नहीं था, बल्कि यह कोशिश थी अनंत सिंह के जनाधार को भावनाओं के जरिए जोड़ने की। ललन सिंह ने जनता को याद दिलाया कि “अनंत को साजिश के तहत फंसाया गया है, अब वक्त है उन्हें न्याय दिलाने का।” इस अपील के साथ ही ललन ने मोकामा की राजनीति को नया मोड़ दे दिया है।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो ललन सिंह का यह कदम दोहरी रणनीति है—पहली, अनंत सिंह समर्थकों को अपने पाले में लाने की; और दूसरी, खुद को ‘संवेदना’ की राजनीति का चेहरा दिखाने की। मगर सवाल यह भी है कि क्या जनता इस भावनात्मक अपील से प्रभावित होगी, या इसे सिर्फ चुनावी ड्रामा समझेगी?
मोकामा की सियासत में फिर उभरा ‘अनंत फैक्टर’
अनंत सिंह की लोकप्रियता किसी रहस्य से कम नहीं। जेल में रहते हुए भी उनकी पकड़ इलाके की नब्ज पर कायम है। लोगों में आज भी यह विश्वास है कि “अनंत था, है और रहेगा।” यही वजह है कि मोकामा में आज भी उनके नाम पर चर्चा गर्म है। ललन सिंह का ‘अनंतमय’ नारा उसी भावनात्मक जुड़ाव को पुनर्जीवित करने की कोशिश है, जो सालों से इस इलाके की राजनीति को दिशा देता आया है।
परंतु, यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अब राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं—दुलारचंद यादव की हत्या ने जनता के बीच संवेदनाओं को झकझोर दिया है, वहीं ललन का यह कदम विपक्ष के लिए भी चुनौती बन गया है। अगर यह भावनात्मक लहर वोटों में बदलती है, तो मोकामा का परिणाम पूरे बिहार की राजनीति पर असर डाल सकता है।
आने वाले हफ्तों में यह साफ होगा कि मोकामा का दिल ‘भावनाओं’ के साथ जाएगा या ‘हकीकत’ के साथ। लेकिन फिलहाल एक बात तय है—मोकामा एक बार फिर पूरी तरह “अनंतमय” हो चुका है।

