जब भी कोई खिलाड़ी पोडियम पर खड़ा होकर गोल्ड मेडल गले में डालता है, तो वह पल पूरे देश के लिए गर्व का होता है। उसकी मेहनत, समर्पण और वर्षों की तैयारी एक पल में रंग लाती है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिसे हम ‘गोल्ड मेडल’ कहते हैं, क्या वह सच में पूरा सोने का बना होता है? सच्चाई जानकर आप जरूर हैरान रह जाएंगे।
असल में, ओलंपिक और कई अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों में मिलने वाला गोल्ड मेडल पूरी तरह से सोने का नहीं होता। बल्कि, इसमें एक खास मिश्र धातु का इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के लिए, टोक्यो ओलंपिक 2020 में दिए गए गोल्ड मेडल्स चांदी से बने थे और उन पर महज 6 ग्राम सोने की कोटिंग की गई थी। यानी मेडल की असली कीमत उसकी धातु से नहीं, बल्कि उस जीत के भावनात्मक और ऐतिहासिक मूल्य से होती है।
असलियत में गोल्ड मेडल होता है ‘सिल्वर बेस’
गोल्ड मेडल के बारे में सबसे बड़ा मिथक यही है कि लोग सोचते हैं कि वह ठोस सोने का बना होता है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय खेल संगठनों के नियमों के अनुसार, गोल्ड मेडल में कम से कम 92.5% चांदी होना चाहिए, और उस पर एक पतली परत के रूप में सोने की चढ़ाई की जाती है। इस प्रक्रिया को गिल्डिंग (Gilding) कहा जाता है, जिसमें महज कुछ ग्राम सोना इस्तेमाल होता है।
टोक्यो 2020 में इस्तेमाल किया गया हर गोल्ड मेडल करीब 556 ग्राम वजनी था, लेकिन उसमें सोना सिर्फ 6 ग्राम ही था। अगर बाजार कीमत से तुलना करें, तो एक गोल्ड मेडल की धातु मूल्य ₹35,000 से ₹50,000 के बीच होती है, जबकि उसका भावनात्मक और प्रतीकात्मक मूल्य करोड़ों में होता है।
असली ‘कीमत’ खिलाड़ी की मेहनत की होती है, मेडल तो बस एक निशानी है
भले ही गोल्ड मेडल पूरी तरह सोने का न हो, लेकिन उसकी अहमियत को कोई चुनौती नहीं दे सकता। खिलाड़ी के लिए वह मेडल सिर्फ एक धातु का टुकड़ा नहीं, बल्कि त्याग, संघर्ष और जज़्बे की पहचान होता है।
हर बार जब खिलाड़ी अपने गले में यह मेडल डालता है, तो वह याद दिलाता है उन अनगिनत घंटों की प्रैक्टिस, चोटों की तकलीफ, और अपने सपनों के लिए की गई कुर्बानियों की। इसलिए अगली बार जब आप किसी विजेता को गोल्ड मेडल लेते देखें, तो यह जरूर याद रखें कि उस मेडल की असली ‘चमक’ सोने से नहीं, बल्कि उस खिलाड़ी की मेहनत से आती है।
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