Thursday, December 25, 2025

1 रुपये–5 रुपये की थाली में सेहत या समझौता? अटल, अम्मा और मां कैंटीन के खाने का चौंकाने वाला सच

देश के कई राज्यों में गरीबों, मजदूरों और दिहाड़ी कामगारों के लिए सस्ती कैंटीन एक बड़ी राहत बनकर उभरी हैं। कहीं एक रुपये में इडली मिल रही है तो कहीं पांच रुपये में दाल-चावल और रोटी की पूरी थाली। इन कैंटीनों का मकसद साफ है—कोई भी व्यक्ति भूखा न सोए। लेकिन जैसे-जैसे इन सस्ती थालियों की संख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे एक अहम सवाल भी लोगों के मन में उठने लगा है कि इतना सस्ता खाना क्या वाकई हेल्दी और सुरक्षित होता है?

आमतौर पर लोगों को लगता है कि कम दाम का मतलब कम क्वालिटी, लेकिन सरकारी कैंटीन इस सोच को चुनौती देती नजर आती हैं। तमिलनाडु की अम्मा कैंटीन, पश्चिम बंगाल की मां कैंटीन और अब दिल्ली की अटल कैंटीन—तीनों योजनाएं लाखों लोगों की रोजमर्रा की जरूरत बन चुकी हैं। मजदूर, रिक्शा चालक, घरेलू कामगार और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग इन कैंटीनों पर भरोसा कर रहे हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि क्या ये थालियां सिर्फ पेट भरती हैं या शरीर को जरूरी पोषण भी देती हैं।

दिल्ली की अटल कैंटीन: 5 रुपये की थाली, 25 रुपये की लागत

दिसंबर 2025 में दिल्ली सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जन्म शताब्दी के मौके पर 100 अटल कैंटीन की शुरुआत की। ये कैंटीन खास तौर पर झुग्गी-झोपड़ी इलाकों, कंस्ट्रक्शन साइट्स और गरीब बस्तियों में खोली गई हैं, जहां सस्ती और नियमित भोजन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। यहां सिर्फ 5 रुपये में दाल, चावल, रोटी (करीब 300 ग्राम), सब्जी (100 ग्राम) और अचार दिया जा रहा है।

दिलचस्प बात यह है कि एक थाली की असली लागत करीब 25 से 30 रुपये आती है, लेकिन बाकी रकम सरकार सब्सिडी के रूप में देती है। हर अटल कैंटीन दिन में दो बार खाना परोसती है और औसतन 1000 लोगों को भोजन उपलब्ध कराती है। साफ-सफाई को लेकर भी दावा किया जाता है कि खाने की जांच FSSAI के मानकों और लैब टेस्टिंग के जरिए की जाती है। यानी दाम भले कम हों, लेकिन हाइजीन और गुणवत्ता पर ध्यान देने की कोशिश की जा रही है।

अम्मा और मां कैंटीन: सालों से चल रहा भरोसे का मॉडल

तमिलनाडु की अम्मा कैंटीन देश की सबसे चर्चित और पुरानी सस्ती कैंटीन योजनाओं में से एक है। साल 2013 से चल रही इस योजना के तहत एक रुपये में इडली, तीन रुपये में दही-चावल और पांच रुपये में पोंगल या सांभर-राइस मिलता है। यहां का खाना महिलाओं के सेल्फ-हेल्प ग्रुप तैयार करते हैं, जिससे न सिर्फ हाइजीन बनी रहती है बल्कि महिलाओं को रोजगार भी मिलता है।

वहीं पश्चिम बंगाल में 2021 से शुरू हुई मां कैंटीन में पांच रुपये में चावल, दाल और सब्जी मिलती है। कुछ जगहों पर अंडा भी दिया जाता है। यह थाली खास तौर पर गरीब मजदूरों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बनाई गई है। दोनों ही राज्यों में इन कैंटीनों ने यह साबित किया है कि अगर सरकार सही निगरानी रखे, तो सस्ते में भी संतुलित और साफ खाना दिया जा सकता है। यही वजह है कि लोग इन कैंटीनों पर सालों से भरोसा करते आ रहे हैं।

डॉक्टरों की राय: पेट भरने के साथ कुपोषण से राहत

दिल्ली की न्यूट्रिशन एक्सपर्ट और फूड सिक्योरिटी रिसर्चर डॉ. रितिका खेरा के मुताबिक, ये सरकारी कैंटीन सड़क किनारे मिलने वाले फास्ट-फूड या ठेले के खाने से कहीं ज्यादा सुरक्षित और हेल्दी विकल्प हैं। उनका कहना है कि इन थालियों में कार्बोहाइड्रेट (चावल या रोटी), प्रोटीन (दाल) और सब्जियां शामिल होती हैं, जो कुपोषण को कम करने में मदद करती हैं। खासकर उन लोगों के लिए, जिनके पास रोज पौष्टिक खाना खरीदने की क्षमता नहीं होती।

हालांकि डॉक्टर यह भी चेतावनी देते हैं कि अगर कोई व्यक्ति लंबे समय तक सिर्फ यही खाना खाता है, तो शरीर में आयरन, विटामिन-बी12 और दूसरे माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की कमी हो सकती है। इसलिए समय-समय पर फल, दूध, अंडा या हरी सब्जियां शामिल करना जरूरी है। कुल मिलाकर, 1 या 5 रुपये की ये थालियां न सिर्फ भूख मिटाती हैं, बल्कि सही निगरानी में रहने पर देश के गरीब वर्ग के लिए फूड सिक्योरिटी का मजबूत सहारा भी बन सकती हैं।

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