मजदूर दिवस के मायने, 97 वर्षों बाद भी मजदूर आज भी है मजबूर

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नई दिल्ली। कोरोना संकट के बीच मजदूर तो हैं पर काम नहीं है। शायद यही वजह है कि मजदूर दिवस का उमंग इस बार गायब है। आज 1 मई यानी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है। आज का दिन पूरी तरह से श्रमिकों को समर्पित होता है। भारत में 1 मई, 1923 में पहली बार मजूदर दिवस मनाया था। मद्रास की हिंदुस्तान किसान पार्टी ने इसे मना कर भारत में इसकी शुरुआत की थी। मजदूर दिवस की शुरुआत 1 मई, 1886 को अमेरिका के शिकागो में एक आंदोलन के दौरान हुई थी। मजदूरों ने 8 घंटे काम करने को लेकर एक बड़ा आंदोलन छेड़ा था। अमेरिका के सभी मजदूर 15 घंटे काम कराये जाने और शोषण के खिलाफ 1 मई, 1886 को उठ खड़े हुए थे। इस आंदोलन को रोकने के लिए गोलियां चली और कई मजदूर मारे भी गये थे।

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इस घटना के बाद वर्ष 1889 में ही पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की बैठक हुई, जिसमें यह प्रस्ताव पास किया गया कि 1 मई मजदूरों के अवकाश का दिन होगा और इस दिन को मजदूर दिवस के तौर पर मनाया जायेगा। दुनिया में यही वो आंदोलन था जिसके चलते मजदूरों को काम के लिए 8 घंटे निर्धारित करने की आधारशिला पड़ी थी। मद्रास की हिंदुस्तान किसान पार्टी ने 1 मई को भारत में मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत की थी। इसी दिन लाल रंग के झंडे को मजदूर दिवस के प्रतिक के रूप में इस्तेमाल किया गया था। भारत में यहीं से मजदूर आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। इस आंदोलन का प्रतिनिधित्व वामपंथी और सोशलिस्ट पार्टियों की तरफ से किया गया था। इसी आंदोलन से ही दुनियाभर में मजदूर संगठनों को अपने साथ हो रहे अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का अवसर मिला था।

आजादी के 72 वर्षों बाद मजदूर का जीवन बदल चुका है। उसके जीवन स्तर में कोई खासा बदलाव नहीं आया लेकिन उसके काम के तौर—तरीकों में काफी बदलाव आया है। भारत में जब मजदूर आंदोलन की शुरुआत हुई थी तब किसी ने यह नहीं सोचा रहा होगा कि मजदूरों की समस्याएं दशकों तक एक सी ही रहने वाली है। इतने आंदोलनों के बाद भी मजदूरों का शोषण आज भी बदास्तूर जारी है। मजदूर आज भी 8 घंटे से ज्यादा काम करते हैं और न्यूनतम आय से भी कम पर अपना गुजारा करते हैं।

भारत में फैक्ट्री एक्ट बना। कई मजदूर यूनियन बनी लेकिन सुधार कहां और कितना हुआ, इसका जवाब किसे के पास नहीं है। फैक्ट्री एक्ट के तहत कुछ नियम भी बने लेकिन वो सभी कागजी हैं। जमीनी स्तर पर अगर किसी फैक्ट्री में जा कर देखा जाए तो हकीकत बेहद चौंकाने वाले हैं। मजदूरों के लिए जितने भी आंदोलन चले और चलाये गए उनसे कितने मजदूरों का भला हो पाया है इसका कोई लेखा-जोखा कहीं नहीं है।

कोरोना संकट के कारण लॉकडाउन में देशभर के राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूर आज बड़े संकट में हैं। इन मजदूरों के पास खाने-पीने की घोर समस्या है। लॉकडाउन शुरू होने पर किस तरह से ये प्रवासी मजदूर पैदल अपने घरों को निकल पड़े थे, इसे हम सभी ने देखा है। कितने मजदूर इस आस में चल बसे की वो पैदल ही घर पहुंच कर अपने परिवार संग रह पाएंगे लेकिन ऐसा हो संभव न सका। मजदूर कितने मजबूर हैं इसको समझना होगा। असल में परिवर्तन की बात सभी करते हैं पर परिवर्तन लाना कोई नहीं चाहता।

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